एक पिता ने कहा खेद से
विषम बहुत है सूनापन
नीरव-नीरव वृद्ध नयन यह
खोज रहा है अपनापन.
भूल गया क्या, याद है कुछ भी
था तेरा भोला सा बचपन
नेह वही पाने को मचलता
बूढ़ा सा ये तन-मन हरदम.
भार वेदना का ढोया था
जब नन्हें थे तेरे कदम
तड़प-तड़प से मैं जाता था
जब बहता तेरा अश्रु-कण.
चिर आकांक्षा निष्फल इच्छा
अथाह असीम है व्याकुलतापन
अवसाद अनंत है अकथ विषाद है
व्यर्थ विफल है एकाकीपन.
हूं अंतिम अरुण क्षितिज का
आलोक हीन वैभव विहीन
विकल दिवाकर डूबता जैसे
मुख मलिन अनुराग हीन.
भारती दास ✍️
वाह!
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteबहुत सुन्दर।
ReplyDeleteधन्यवाद रूपा जी
ReplyDeleteअक्सर पिता कभी नहीं कहता यह सब, मन ही मन दुआएँ ज़रूर देता है
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteबहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteधन्यवाद अभिलाषा जी
Deleteशानदार कविता...वाह भारती जी
ReplyDeleteधन्यवाद अलकनंदा जी
Deleteदिल को छूने वाली पंक्तियाँ... सुन्दर रचना!
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteस्वयं को अन्तिम अरुण कहना एक वृद्ध पिता की हताशा की चरम सीमा है . वास्तव में उससे अनदेखी और उपेक्षा मिलना, जिसके लिये तन मन और जीवन की हर खुसी व सुविधा निछावर करदी हो , अकथ व्यथा है . मर्मस्पर्शी कविता
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपको
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