Saturday, 29 July 2023

हूं अंतिम अरुण क्षितिज का

 एक पिता ने कहा खेद से

विषम बहुत है सूनापन

नीरव-नीरव वृद्ध नयन यह

खोज रहा है अपनापन.

भूल गया क्या, याद है कुछ भी

था तेरा भोला सा बचपन

नेह वही पाने को मचलता

बूढ़ा सा ये तन-मन हरदम.

भार वेदना का ढोया था

जब नन्हें थे तेरे कदम

तड़प-तड़प से मैं जाता था

जब बहता तेरा अश्रु-कण.

चिर आकांक्षा निष्फल इच्छा

अथाह असीम है व्याकुलतापन

अवसाद अनंत है अकथ विषाद है

व्यर्थ विफल है एकाकीपन.

हूं अंतिम अरुण क्षितिज का

आलोक हीन वैभव विहीन 

विकल दिवाकर डूबता जैसे

मुख मलिन अनुराग हीन.

भारती दास ✍️

14 comments:

  1. बहुत सुन्दर।

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  2. धन्यवाद रूपा जी

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  3. अक्सर पिता कभी नहीं कहता यह सब, मन ही मन दुआएँ ज़रूर देता है

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    1. धन्यवाद अनीता जी

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  4. बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना

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    1. धन्यवाद अभिलाषा जी

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  5. शानदार कव‍िता...वाह भारती जी

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    1. धन्यवाद अलकनंदा जी

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  6. दिल को छूने वाली पंक्तियाँ... सुन्दर रचना!

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  7. धन्यवाद सर

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  8. स्वयं को अन्तिम अरुण कहना एक वृद्ध पिता की हताशा की चरम सीमा है . वास्तव में उससे अनदेखी और उपेक्षा मिलना, जिसके लिये तन मन और जीवन की हर खुसी व सुविधा निछावर करदी हो , अकथ व्यथा है . मर्मस्पर्शी कविता

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  9. बहुत बहुत धन्यवाद आपको

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