बरसो सावन मनभर बरसो
शिव के नील-ग्रीवा पर बरसो
बेला गुलाब चंपा पर बरसो
पेड़ों के झूमते शाख पर बरसो
खगों के गाते पाख पर बरसो
बरसो सावन मनभर बरसो....
रज के हर कण-कणमें बरसो
मृदु गुंजन कर आंगन में बरसो
चंचल मुख आंचल में बरसो
नन्हे-नन्हे करतल में बरसो
बरसो सावन मनभर बरसो....
पर्वत मैदान नदी में बरसो
झाड़-फूस की कुटी में बरसो
भीख मांगती मुट्ठी में बरसो
भावविहीन कुदृष्टि में बरसो
बरसो सावन मनभर बरसो....
भारती दास ✍️
आपकी रचना चर्चा मंच ब्लॉग पर रविवार 16 जुलाई 2023 को
ReplyDelete'तिनके-तिनके अगर नहीं चुनते तो बना घोंसला नहीं होता (चर्चा अंक 4672)
अंक में शामिल की गई है। चर्चा में सम्मिलित होने के लिए आप भी सादर आमंत्रित हैं, हमारी प्रस्तुति का अवश्य अवलोकन कीजिएगा।
बहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteप्रिय भारती जी,एक गीत का स्मरण हो आया ----
ReplyDelete'बरखा रानी जम के बरसो,
मेरा दिलबर जा ना पाए झूम कर बरसो '
इसी धुन में आपका बरखा का आह्वान बहुत सुन्दर है।बरखा ने बरस -बरस कर जनमानस को आतंकित किया हुआ है।अच्छा लिखा है आपने।बधाई आपको 🙏
बहुत बहुत धन्यवाद रेणु जी
Deleteबहुत सुंदर रचना, सावन के महीने में ऐसा ही हो रहा है कई प्रदेशों में
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद अनीता जी
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