पल बहुमूल्य निकलता जाता
कुछ न कुछ वह कहता जाता
क्षीण मलीन होती अभिलाषा
अंधकार सी घिरी निराशा
विकल विवश सब सहता जाता
कुछ न कुछ वह कहता जाता....
रुपहली रातों की माया
मन उन्मादी शिथिल सी काया
मोह प्राण का बढ़ता जाता
कुछ न कुछ वह कहता जाता....
वर्षा धूप शिशिर सब आया
नियति प्रेरणा बन मुस्काया
काल निरंतर दृष्टि रखता
कुछ न कुछ वह कहता जाता....
राष्ट्र प्रीति से रहता सब गौण
मुखर चुनौती लेता है कौन
अपना अंतिम भेंट दे जाता
कुछ न कुछ वह कहता जाता....
भारती दास ✍️