एक पिता ने कहा खेद से
विषम बहुत है सूनापन
नीरव-नीरव वृद्ध नयन यह
खोज रहा है अपनापन.
भूल गया क्या, याद है कुछ भी
था तेरा भोला सा बचपन
नेह वही पाने को मचलता
बूढ़ा सा ये तन-मन हरदम.
भार वेदना का ढोया था
जब नन्हें थे तेरे कदम
तड़प-तड़प से मैं जाता था
जब बहता तेरा अश्रु-कण.
चिर आकांक्षा निष्फल इच्छा
अथाह असीम है व्याकुलतापन
अवसाद अनंत है अकथ विषाद है
व्यर्थ विफल है एकाकीपन.
हूं अंतिम अरुण क्षितिज का
आलोक हीन वैभव विहीन
विकल दिवाकर डूबता जैसे
मुख मलिन अनुराग हीन.
भारती दास ✍️