बीज निकलकर पौधे बनते
पौधे बन जाते हैं पेड़
सहज प्रक्रिया चलती रहती
परिवर्तन की साँझ-सवेर.
सूरज ढलता शाम है आती
रात गुजरती होते भोर
नई सुबह उत्साह जगाती
विहाग बालिके करती शोर.
झर जाते हैं जीर्ण सुमन-दल
नये कुसुम खिल उठते हैं
दबे-छिपे संकेत ये कहते
कर्म से ही जीवन चलते हैं.
संघर्षरत है सारी दुनिया
असुरता के निर्मम घातों से
मृत्यु विचरती रहती पल-पल
क्रूर पाशविकता के हाथों से.
होता है विदा जगत से
मूढ़-आतंकी द्विज-विद्वान
कोई दग्ध करता भूतल को
कोई बनता देश की शान.
कालखंड में विद्यमान है
सबका व्यापक लेखा-जोखा
अजर-अमर नहीं हुआ है
मानव समाज की कोई ढांचा.
पहचानो निज कर्म को जानो
परिवर्तन अब दूर नहीं है
विषम-वेला का अब होगा अंत
नव सृजन अब दूर नहीं है.