कहते ज्ञानी कवि विशारद
दोस्त मन के होते चिकित्सक
अवसाद मिटाते होते सहायक
दूर भगाते गम के सायक.
रखते विचार भावना शुद्ध
करते नहीं वो पथ अवरुद्ध
साझा करते सुख और दुख
मुश्किल में नहीं होते विमुख.
आनंद-हंसी बरसाते हैं
अवगुण तमाम अपनाते हैं
पलकों से पीड़ा हरते हैं
पुलकित अंकों में भरते हैं.
मुसीबत में देते हैं साथ
गिरने पर नहीं छोड़ते हाथ
करते सदा ही हित की बात
मित्र नहीं देते कभी घात.
लेकिन बदल गया परिवेश
मित्रों की पहचान और वेश
सच्ची मित्रता नहीं है शेष
परिभाषा अब बनी विशेष.
टिका स्वार्थ पर है ये रिश्ता
कुत्सित हो गई है मानसिकता
चित्त का वो सुंदर कोमलता
सिमट गई मित्र की पावनता.
भारती दास ✍️
बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteअहा, सुन्दर कविता।
ReplyDeleteधन्यवाद सर
DeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteलेकिन बदल गया परिवेश
ReplyDeleteमित्रों की पहचान और वेश
सच्ची मित्रता नहीं है शेष
परिभाषा अब बनी विशेष.
टिका स्वार्थ पर है ये रिश्ता
कुत्सित हो गई है मानसिकता
चित्त का वो सुंदर कोमलता
सिमट गई मित्र की पावनता.
सौ टका सही बात कही है आपने! बहुत बेहतरीन कविता! 👍👍👍
धन्यवाद मनीषा जी
ReplyDeleteमित्रता की सुंदर परिभाषा, बहुत शुभकामनाएं आपको।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
ReplyDeleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteबहुत सुंदर विवेचन मित्रता का।
ReplyDeleteसच ही कहा है आपने,
दोस्त मन के होते चिकित्सक
अवसाद मिटाते होते सहायक
दूर भगाते गम के सायक.
रखते विचार भावना शुद्ध
करते नहीं वो पथ अवरुद्ध।
सादर।
धन्यवाद मीना जी
ReplyDeleteBahut khub
ReplyDeleteधन्यवाद दीपू जी
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteसमय के साथ बदलती परिभाषा किन्तु कुछ मित्र अभी भी सच्चे होते हैं। बहुत सुन्दर कविता।
ReplyDeleteधन्यवाद अनुपमा जी
ReplyDelete