एक व्यक्ति नदी किनारे
कुटिया बनाकर रहता था़
नियमित रूप से श्रद्धापूर्वक
पूजा साधना करता था.
देखते-देखते बढ गई ख्याति
अनुयायी बन गये हजार
धन-पैसा बढता ही गया
समाया उर में दूषित विकार.
गरीब उनको रास न आते
अमीरों से मिलता उपहार
सोना चांदी की चकाचौंध में
भूल गया मधुर व्यवहार.
समय के साथ वो वृद्ध हुआ
रोगग्रस्त हो उठा शरीर
मृत्यु के डर से भयभीत हुआ
होने लगा बेचैन अधीर.
चित्त सदा कोसता रहता
सदा ही धन का मान बढ़ाया
लोगों की आस्था से खेला
लोभ में सारा पुण्य गंवाया.
अवसर वादी बनकर ही तो
दुखियों को सताता रहा
चमत्कार के नाम पर
भावनाओं को ठगता रहा.
सारी तपस्यायें विफल हुई
आत्मबोध न पाया कभी
पश्चाताप के आंसू बनकर
मिथ्या आडंबर बहा सभी.
गलती का एहसास हुआ
फिर भक्ति में लीन हुआ
दुविधा मिटी हृदय से सारी
मुक्ति-पथ पर तल्लीन हुआ.
भारती दास ✍️
आत्मबोध ही मुक्ति का मार्ग है ... जब हो जाये जीवन तभी से चुरू मानना चाहिए ...
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteआत्मबोध सदैव अंतर से आता है...समय से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है...जब जागो तभी सवेरा...सुन्दर रचना...👍👍👍
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteआत्मचिंतन और दर्शन से ओतप्रोत रचना ।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteधन्यवाद सर
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