अंधेरे हो या चाहे उजाले
सहम-सहम कर चलती सांसे
जन्म से ही उन्मुक्त जो बहती
वो स्पंदन भरती आहें.
उथल-पुथल सी मची हुई है
समय की बेबस धारे हैं
कुढ़ते खीजते वक़्त ये बीतते
विरान सी सांझ सकारे हैं.
द्वार-द्वार पर आंखें नम है
गम से भरे नजारे हैं
क्षुब्ध व्यथा से जूझ रहे हैं
टूटे जिनके सितारे हैं.
भव भय दूर नहीं होते हैं
संकट में तन मन सारे हैं
भूख प्यास से बिलखते अभागे
जो हुये अनाथ बेसहारे हैं
दुखी निराश हताश हृदय ने
संशय में हिम्मत हारे हैं.
विकल करुण निरीह की आशा
अब ईश्वर के ही सहारे हैं.
भारती दास ✍️.
मर्मस्पर्शी और सच्चाई को बयां करती उत्कृष्ट रचना ।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (३०-0६-२०२१) को
'जी करता है किसी से मिल करके देखें'(चर्चा अंक- ४१११) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
धन्यवाद अनीता जी
Deleteसार्थक भाव लिए हृदय स्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteधन्यवाद कुसुम जी
Deleteबेहद हृदयस्पर्शी रचना
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराधा जी
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति 🙏
ReplyDeleteधन्यवाद शरद जी
ReplyDelete