Saturday, 20 June 2020

पिताजी सिखलाया करते थे



पल बीत गया क्षण बीत गया
यादों का मंजर है ठहरा सा
पुलक भरी सुख का अनुगुंजन
हृदय के अंदर है बिखरा सा.
वो गेह कहां वो स्नेह कहां
था मुस्काता सब चेहरा सा
स्मृति से छनकर आती है
था जहां प्रेम का पहरा सा.
अब समझ में सब आता है
जो कुछ नित्य कहा करते थे
ज्ञान धर्म उत्थान की बातें
पिताजी सिखलाया करते थे.
उन्हें याद कर गदगद होते
जैसे पावन हो कथा सुहानी
निज मन ही झकझोर रहा है
नयनों में भर आता पानी.
व्यस्त रहे सुख के संचय में
भूले मद में अमृत वाणी
व्याकुल उर अब ढूंढ रहा है
उन कदमों की धूमिल निशानी.
भारती दास ✍️


 


15 comments:

  1. बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. बहुत बहुत धन्यवाद

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  3. बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति।
    योगदिवस और पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ आपको।

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  4. बहुत बहुत धन्यवाद सर

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  5. समय रहते कितने समझ पाते हैं पिता की क़द्र करना उनकी दी शिक्षा को,
    बहुत अच्छी मर्मस्पर्शी सामयिक रचना

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  6. बहुत बहुत धन्यवाद कविता जी

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  7. पल बीत गया क्षण बीत गया
    यादों का मंजर है ठहरा सा
    पुलक भरी सुख का अनुगुंजन
    हृदय के अंदर है बिखरा सा.....
    पितृ याद में लिखी गई बेहतरीन रचना। आपको पितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ ।

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  8. आपको भी पुरूषोत्तम जी, बहुत बहुत धन्यवाद

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  9. शायद समय रहते पिता का महत्त्व कम ही समझ आता है ... पर पिता पिता है ... याद तो आता है ... बहुत भाव पूर्ण रचना ...

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  10. बहुत बहुत धन्यवाद सर

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  11. बेहतरीन प्रस्तुति

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  12. अब समझ में सब आता है
    जो कुछ नित्य कहा करते थे
    ज्ञान धर्म उत्थान की बातें
    पिताजी सिखलाया करते थे.
    सही वक़्त पर सही बातें समझ में आती हैं. भावों से सराबोर रचना.

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  13. बहुत बहुत धन्यवाद सर

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