Saturday, 6 June 2020

जीवन रण है

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खेत नहीं था भूमि नहीं थी
होश हुआ तब मातृहीन थी
जीविका कुछ तलाश रही थी
उदास बहुत हताश हुई थी.
मिला न अबतक कोई काज
ढलने वाली है ये सांझ
कैसे बुझेगी पेट की आग
दुर्बल पिता होंगे नाराज.
द्वार-द्वार पर जा रही थी
हाथ जोड़ कर गा रही थी
दुत्कार सभी की सता रही थी
आंखों से आंसू बहा रही थी.
द्रवित हो गई सरल सुनैना
भर आये थे उसके नैना
उसने कहा घर मेरे आना
काम काज में हाथ बंटाना.
कर्मठ कर्म करते रहते हैं
भाग्य से जूझते ही रहते हैं
तृप्त अतृप्त होते रहते हैं
कई उपेक्षायें सहते हैं.
जिसअन्न को उपजाते किसान
वही अनाज खाते धनवान
जबतक है जीवों में प्राण
भूख है सबकी एक समान.
उत्साहित वो मुग्ध खड़ी थी
सुख संतोष में भींग रही थी
कर्म सूत्र को सीख रही थी
जीवन-रण को समझ रही थी.
पिता अनेकों कष्ट सहे थे
उसके लिए ही जिये मरे थे
होली दीवाली खूब मने थे
वहीं आज अस्वस्थ पड़े थे.
मेहनत की पहली कमाई
हर्षित होकर वह मुस्काई
नित्य नियति से होगी लड़ाई
नव आशा ने विषाद मिटाई.
भारती दास

    



8 comments:

  1. धन्यवाद सर

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 08 जून 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. धन्यवाद यशोदा जी

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  3. वाह! बहुत सुंदर शब्द-चित्र!!!

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  4. धन्यवाद विश्वमोहन जी

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  5. हर पंक्ति बहुत सुन्दर भाव समेटे है

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  6. धन्यवाद संजय जी

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