ये वक्त की
बेवफाई है
दी दर्द की जो
दुहाई है
देकर ग़मों के
जलजला
करती बड़ी रुसवाई
है.
कस देती है वो
कसौटी पर
दंश देती है वो चुनौती
पर
कुछ खोट होता है
अगर
तड़पाती है वो
विश्रांति पर.
दुःख की अति है
उत्पीड़न
सुख की गति है
परिपूरण
सायं-ऊषा की
सपनों सा
होता मनुज का ये
जीवन.
सृजन सिंचन और ये
संहार
विधि का है क्यों
ऐसा संसार
हे दिगंबर हे
करतार
शोणितों में डूबा
सुकुमार.
बन गया सिंदूर
अंगार
गिरि ने उगला
पावक-धार
कांप उठा है गृह
के द्वार.
सहम उठा है भग्न
विहार.
अश्रुओं के नीर
अपार
रुधिर का निकला
मुसलाधार
ओह भीषण है संहार
उठा दुआ में हाथ
पसार.
निष्ठुर सा दुःख
आन पड़ा है
अपनों का अवसान
हुआ है
नीरव नभ अवलोक रहा है
सिसक-सिसक जीवन
जो थमा है .
No comments:
Post a Comment