उघड़े बदन चिथड़े
वसन
अतृप्त क्षुधा
मूंदते नयन.
दयनीय सी वेश
बिखरे से केश
मांगती है कुछ
खाने को शेष.
धूप में जलती हुई
हाथों को मलती
हुई
भीख वो मांगती
हुई
मिन्नतें करती
हुई.
खूबसूरत थी मगर
ओठ फटी सी खुली
अधर
द्रृष्टि जाती है
ठहर
आते-जाते लोग पर.
बड़े घर की बेटी
होती
वेश-भूषा सुन्दर
सी होती
गुड़िया जैसी
दिखती होती
लोगों की परवाह
वो होती.
लेकिन वो अनाथ है
कोई भी ना साथ है
ना किसी की आस है
बचपन कितनी उदास
है.
मुट्ठी भर कुछ
खाने को
बैठी है सबकुछ
गंवाने को
क्या कहूँ इस
अफसाने को
आँखें है बस भर
आने को.
खुद ही में सिमट
गयी मैं
उलझन में उलझ गयी
मैं
निष्ठुर कपट हुई
मैं
आकुल व्यथित हुई
मैं.
वो अंतर्मन को छेड़
गयी
आखों में चित्र
उकेर गयी
कुछ ही पल की देर
हुयी
वो और कहीं पर
दौड़ गयी.
दुनिया में है
भेद अपार
कहीं पर तंगी
कहीं तकरार
कही है व्याकुलता
बेशुमार
कहीं है रोशनी
कही अंधकार.
थी अश्रुपूरित सी
रागिनी
माधुर्य रहित सी कामिनी
थी मनमोहक
मनमोहिनी
वो कोमल सी
भिखारिणी.
No comments:
Post a Comment