धरती-पुत्र किसान हमारे
जीवन अपना हार चुके हैं
उनकी दशा हुई भयावह
मौतों को स्वीकार चुके है .
सूखे अकाल व बेरोजगारी
सपनों को ही तोड़ चुके हैं
भारत की जो रीढ़ कृषि थी
आज वही दम तोड़ चुके हैं .
कर्ज के बोझ से दबे बेचारे
खुशहाली को छोड़ चुके हैं
अंतहीन दुश्चक्र ने उनकी
तन-मन को झकझोड़ चुके हैं .
बिन मौसम की बारिश ने तो
दर्द उन्हें पुरजोर दिया है
कृषि की लागत सारा साधन
यूँ ही व्यर्थ बेकार हुआ है .
जिसके मन में पुलक भरी हो
जो सदा पीड़ा को सहते
श्रमशक्ति की स्वेद से जिसका
तन-मन सारा यूँ ही महके .
सारे जग का करते पोषण
मन जिसका हो सुन्दर पावन
आज उन्ही की अंत हो रही
जो खेतों में लाये सावन .
अन्नदाता को बचाना होगा
जिम्मेदारी निभाना होगा
उनके सर का बोझ हटा के
भोजन-प्रसाद को पाना होगा.
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