मां गंगे की शीतल प्रवाह
अनेक उपासक अनेक है चाह
मर्म वेदना विकल कराह
दुःख चिंता विचलित सी आह
विस्तृत नीरव सलिल पावनी
पाप शाप हरती सनातनी
प्रबोध दायिनी मोक्षदायिनी
देवनदी की जल सुहावनी
बेटियों को बना सारथी
राजनीति करते महारथी
पदक विसर्जन में शान कहां है
वो गौरव अभिमान कहां है
देश के लिए मरनेवाले
अनीतियों से लड़नेवाले
कांटों पर ही चलते हैं
स्वयं ही राहें बनाते हैं
शील सादगी सज्जनता का
क्षमा दया करुणा ममता का
दीप जले निज अंतर्मन में
सुख पाये हरदम जीवन में
मां सुरसरि सब पीड़ा हर दे
बोध सुभग हर उर में भर दे.
भारती दास ✍️
वाह!! सुंदर सीख देती स्मासामयिक रचना!
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति !
ReplyDeleteधन्यवाद सर
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