विभा वसंत की छायी भू पर
कण-कण में मद प्यार भरा है
आलिंगन में भरने को आतुर
गगन भी बांहें पसार खड़ा है.
दमक रहा है इन्दु-आनन
सिमट-सिमट तन लजा रहा है
अलसायी अलकों में जैसे
उन्माद प्रेम का सजा रहा है.
पवन तोड़ कर बंधन सारा
मुख कलियों का चूम रहा है
कौन हीन है कौन श्रेष्ठ है
संग सभी के झूम रहा है.
भवन-भवन में मगन-मगन में
मदमस्त होकर घूम रहा है
भूमि-अंबर के ओर-छोर में
विचर कहीं भी खूब रहा है.
इच्छाओं का चंचल सिंधु
मन-तरंग में डूब रहा है
विवश-विकल-विविध पीड़ा से
सुख वसंत भी जूझ रहा है.
सुने यही थे कभी पढे थे
अनंग-रुप अवतार रहा है
क्यों कुसुमाकर बेबस होकर
सौम्य-रुप नकार रहा है.
भारती दास ✍️
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बसन्त का सुन्दर चित्रण किया है आपने।
ReplyDeleteबहुत आभार सर
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ReplyDeleteबहुत सुंदर सरस सृजन भारती जी।
Deleteसादर।
बहुत आभार श्वेता जी
Deleteबहुत ही सुंदर सृजन भारती जी,सादर नमन
ReplyDeleteबहुत आभार कामिनी जी
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी
ReplyDeleteबहुत आभार आलोक जी
ReplyDeleteआदरणीया मैम ,
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर वर्णन वसंत ऋतू का। माता प्रकृति का हर रूप सुंदर है, विशेष कर वर्षा और वसंत।
बहुत आभार अनंता जी
ReplyDeleteबसन्त का अद्भुत चित्रण।बहुत सुन्दर लगा
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद उर्मिला जी
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