Tuesday, 2 February 2021

प्रकृति का मंगल वरदान


 

बीती रजनी दिनकर जागा
हंसती आई स्वर्णिम आभा
मंद पवन बहता मादक सा
भीनी-भीनी सुगंध सुमन का.
विटप पत्र से छनकर आती
माघ की मीठी धूप सुहाती
सौंदर्य सुधा से सुरभित धरती
सविता देव की मृदु अनुभूति.
व्याकुलता तृष्णा के मारे
देख न पाते नयन हमारे
मादक मोहक चारो ओर
बिखरा है आनंद विभोर.
अन्न जल वसुधा ही देती
रत्नगर्भा कहाती धरती
धरणी के दो हाथे बनकर
श्रम करते उत्साह से भरकर.
हरी-भरी फसलें इठलाती
लह-लह कर ये खेतें हंसती
है प्रकृति का मंगल वरदान
कण-कण में फैला अनुदान.
भारती दास

 

12 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद

      Delete

  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ५ जनवरी २०२१ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद

      Delete
  3. बहुत बहुत धन्यवाद

    ReplyDelete
  4. वाह
    बहुत सुंदर सृजन
    बधाई

    ReplyDelete
    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद सर

      Delete
  5. वाह ! धरा की प्राकृतिक सुषमा का अति सुंदर चित्र नेत्रों के सामने साकार करती हुई मनोहारी रचना।
    कविवर्य मैथिलीशरण गुप्त जी की कविता 'मातृभूमि' का स्मरण हो आया -
    नीलांबर परिधान हरित तट पर सुन्दर है।
    सूर्य-चन्द्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर है॥
    नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं।
    बंदीजन खग-वृन्द, शेषफन सिंहासन है॥
    करते अभिषेक पयोद हैं, बलिहारी इस वेष की।
    हे मातृभूमि! तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की॥

    ReplyDelete
  6. वाह, गुप्तजी की अतुलनीय रचना,
    बहुत बहुत धन्यवाद मीना जी

    ReplyDelete
  7. प्रकृति का सुन्दर सराहनीय वर्णन

    ReplyDelete
  8. धन्यवाद सर

    ReplyDelete