सलिल कण के जैसी हूं मैं
कभी कहीं भी मिल जाती हूं
रीत कोई हो या कोई रस्में
आसानी से ढल जाती हूं.
व्योम के जैसे हूं विशाल भी
और लघु रूप आकार हूं मैं
वेश कोई भी धारण कर लूं
स्नेह करूण अवतार हूं मैं.
अस्थि मांस का मैं भी पुतला
तप्त रक्त की धार हूं मैं
बेरहमी से कैसे कुचलते
क्या नरभक्षी आहार हूं मैं.
अर्द्ध वसन में लिपटी तन ये
ढोती मजदूरी का भार हूं मैं
क्षुधा मिटाने के खातिर ही
जाती किसी के द्वार हूं मैं.
मैं धीर सुता मैं नारी हूं
सृष्टि का श्रृंगार हूं मैं
हर रुपों में जूझती रहती
राग विविध झंकार हूं मैं.
भारती दास ✍️
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बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteअन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
बहुत बहुत धन्यवाद सर
ReplyDeleteoh oh...behad khaas
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteनारी अस्तित्व को उजागर करती सारगर्भित रचना - - साधुवाद सह।
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteमैं धीर सुता मैं नारी हूं
ReplyDeleteसृष्टि का श्रृंगार हूं मैं
हर रुपों में जूझती रहती
राग विविध झंकार हूं मैं.
बहुत ही सुंदर सृजन,सादर नमन आपको
धन्यवाद कामिनी जी
Deleteखूबसूरत अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteधन्यवाद संगीता जी
Deleteबहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteनारी के सुंदर गुणों के साथ सुंदर उद्गार।
ReplyDeleteसुंदर सरस रचना।
धन्यवाद कुसुम जी
Deleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराधा जी
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