बरस रहा है मेघ निरंतर
अनवरत आवेग से भरकर
प्रचंड कोई अभियान सी लेकरनिर्बल जीवन प्राण को हरकर.जल प्लावन से जान सिसकतेप्रलय सिंधु अरमान निगलतेसघन गगन प्रतिदिन बरसतेसुख वैभव की बस्ती डूबते.आतप वेदना दृश्य डरावनावीभत्स भयानक भू का कोनाबहती है कातर सी नयनाकहर बाढ़ का छीना हंसना.मनुज आसरा बह रहा हैनिर्वाह सहज ही ढह रहा हैसर्वत्र ये पीड़ा कह रहा हैकर्त्तव्य किसका कम रहा है.कर्म साधना हो गई है क्षीणसामर्थ्य हीन साधन विहीनदिन मुश्किल के रातें मलीनदूर कब होगा गम ये असीम.भारती दास ✍️
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (02-09-2020) को "श्राद्ध पक्ष में कीजिए, विधि-विधान से काज" (चर्चा अंक 3812) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत धन्यवाद सर
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 3 सितंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteवाह! बरसात के अत्याचार और कराहते मानव मन की पीड़ा का सजीव प्रवाह इस शब्द-चित्र में उतर आया है। आभार और बधाई!!!!
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteआदरणीया भर्ती दास जी, भाव से भरी रचना!
ReplyDeleteकर्म साधना हो गई है क्षीण
सामर्थ्य हीन साधन विहीन!
मैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
बहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteवाह वाह
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद
Deleteमनुज आसरा बह रहा है
ReplyDeleteनिर्वाह सहज ही ढह रहा है
सर्वत्र ये पीड़ा कह रहा है
कर्त्तव्य किसका कम रहा है.
कर्म साधना हो गई है क्षीण
सामर्थ्य हीन साधन विहीन
बहुत सटीक ....
वाह!!!
बहुत बहुत धन्यवाद सुधा जी
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर ब्लाँग आदरणीया जी
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
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