नारी कविता की
पंक्ति है
चिंतन-मनन की
अभिव्यक्ति है
उससे प्रेरित ये
सृष्टि है
हर देवी की वो शक्ति
है
संवेदना की वो
मूर्ति है
भावना में वो
बहती है
संस्कृति को
सिंचित करती है
दर्दभरी पंक्ति
लिखती है
समाज की दुखभरी
विवशता
कई विषय को उसने
समझा
हुई प्रतारित खुद
को झोंका
हर विरोध को उसने
रोका
घूंट अनेकों पीकर
कड़वा
देती रही हर-पल
परीक्षा
मूक समर्पण की थी
भाषा
घूटनभरी थी ज्ञान
पिपासा
मूर्छित शोषित थी
अभिलाषा
ख्वाब भरी थी
नन्ही आशा
वैदिक युग की जो
थी नारी
अपने चितन से युग
को संवारी
लेखनी में करके
भागीदारी
साहित्य में अपनी
पैर पसारी
काव्य फलक की थी
ध्रुवतारा
नाम था उनका बाई
मीरा
काव्य सृजन की
बहती धारा
प्रखर प्रेरणा की
अवतारा
अनगिनत है ऐसी
विदुषी
साहित्य में उभरी
है मनीषी
एक से बढ़कर एक
विभूति
जिसने भरी सुन्दर
अनुभूति
सौन्दर्य अभिलाषी
कालिदास
तुलसी जायसी और
प्रसाद
सबने माना नारी
को खास
नारी है गरिमा की
सुबास
कल्पना में भरकर
उड़ान
नये रूप में लेकर
पहचान
साहित्य के नभ
में छाई है
अपनी ध्वजा लहराई
है
शिक्षा का आलोक
जो बिखरा
ज्ञानभरी राहों
से गुजरा
रौशन हुआ उर का
अँधेरा
नारी बिना
साहित्य अधूरा.
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