तन से बालिग बन बैठे है
मन से अब तक ही छोटे है
बढ़ चढ़ कर अपराध किये है
धर्म के धंधे साथ लिए है
त्याग- तपस्या कुछ नहीं भाता
बनते स्वार्थी पीड़ा दाता
जाट –पांत का भेद बढ़ाते
पाप –पतन की राह पर चलते
ढृढ –संकल्प हुए अधूरे
वेद मंत्र पड़े है बिखरे
ईमान-आदत –चरित्र सिद्धान्त
ये सब है कहने की बात
नैतिकता कहाँ से लाये
हो चुका जो कबसे पराये
हिंसा- हत्या चोरी –लूट
दुर्बल मन की है करतूत
इंसानियत अपनाना होगा
प्रयास सबों को करना होगा
कुत्सित विचार को छोड़ना होगा
बालिग बनकर सोचना होगा
कविता सच में कड़वी हकीकत को आईने की तरह दिखाती है। तन से बड़े होकर भी मन से छोटे रह जाना, यही तो आज की सबसे बड़ी समस्या है। धर्म के नाम पर धंधा, जात-पांत का भेद, और हिंसा-लूट जैसे काम इंसान को इंसानियत से दूर कर देते हैं।
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