संतप्त हृदय बैठा चिड़ा था
चिड़ी भी थी मौन विकल
निज शौक के लिए उड़ चला
संतान जो था खूब सरल।
उसके पतन में था नहीं
मेरा जरा भी योगदान
स्वछंद तथा स्वाधीन था
सुख स्वप्न का उसका जहान।
मन से, वचन से ,कर्म से
मैं तो सदा ही साथ था
उसकी सरलता-धीरता पर
केवल किया सब त्याग था।
शैशव दशा में जब वो था
पीड़ा अनेकों थे सहे
आचार और व्यवहार संग
सद्ज्ञान उसमें थे गहे।
समय यूं ही व्यतीत हुआ
बचपन छोड़ कर युवा हुआ
सौन्दर्य के आभा तले
संस्कार उसका फीका हुआ.
सपूत कुल का क्षय करें
ये सर्वथा प्रतिकूल है
हठधर्म ही पाले सदा
सब दोष मति का मूल है.
यह सोचकर निर्धन हुआ
मैं मानधन से हो विहीन
बलहीन और निर्बल हुआ
मैं पिता, अब दीन हीन।
भारती दास ✍️
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ReplyDeleteपितृ दिवस पर शुभकामनाएँ
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteहृदयस्पर्शी सृजन!
ReplyDeleteधन्यवाद शुभा जी
Deleteवर्तमान की ज्वलंत सच्चाई को व्यक्त करती सुंदर भावपूर्ण रचना।
ReplyDeleteपितृ दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
धन्यवाद रुपाजी
Deleteबहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
ReplyDeleteसुन्दर उदगार।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteसुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
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