वर्तमान नारी का जीवन
क्यों इतनी व्यथित हुई है
व्याभिचारी-अपराधी बनकर
स्वार्थी जैसी चित्रित हुई है.
जब-जब भी बहकी है पथ से
वो पथभ्रष्ट दूषित हुई है
पीड़ा-दाता बनकर उसने
खुद ही जग में पीड़ित हुई है.
रूप कुरूप है उस नारी का
जब सृजन सोच से भ्रमित हुई है.
जीवन में होकर गुमराह
सदा सदा ही व्यथित हुई है.
परिवार राष्ट की लाज मिटा कर
भाग्य भी उसकी दुखित हुई है.
युग-युग का इतिहास ये कहती,
नारी ही तो प्रकृति हुई है.
त्याग- तपस्या थी ऋषियों की,
गरिमामय सी सृजित हुई है.
है निवेदन उस नारी से,
जो कभी दिग्भ्रमित हुई है.
वो अपना क्षमता दिखलाए,
जिससे जग में पूजित हुई है.
भारती दास ✍️
संस्कार विहीन पालन-पोषण और चारों ओर बढ़ती हुई विद्रूपता ने कहीं-कहीं नारी के कोमल मन को भी जैसे पाषाण बना दिया है
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
ReplyDeleteसमय के साथ ताल में ताल मिलाती स्त्रियों के मध्य कुछ इस तरह की स्त्रियां भी हैं, जो संस्कारों से खेल रही हैं, सार्थक रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद सर
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