शून्य रुप में पड़ी थी मिट्टी
सबकी ठोकरें खाती थी
मन मसोस कर रहती थी
बिना लक्ष्य के जीती थी.
एक कुम्हार ने आकर श्रम से
मिट्टी को खोदा और गूंथा धा
फिर चाक पर खूब घुमाकर
आगों के अंदर झोंका था.
तपकर जलकर उस मिट्टी ने
अनेक रुपों में आकार लिया
मटका बनकर प्यास बुझाई
गमलों में स्वप्न साकार किया.
श्रम का मूल्य सदा मिलता है
तन का भी होता उपयोग
बेशक कष्टों से होता सामना
लेकिन सुकर्म का होता योग.
बदल स्वयं को सद्कर्म करे जो
वो सर्व हितकारी बन जाता है
अपराधी दुष्कर्मी अधर्मी
विध्वंस कारी बनकर जीता हैं.
भारती दास ✍️
वाह! सुंदर प्रेरणा देते शब्द !
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
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Deleteवाह!!!
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर संदेशप्रद रचना।
श्रम का महत्व!
धन्यवाद सुधा जी
Deleteबहुत सुंदर रचना,प्रेरणादायी,
ReplyDeleteधन्यवाद मधुलिका जी
Deleteसत्कर्म के लिए प्रेरित करती सुंदर रचना।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
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