Sunday, 2 April 2023

श्रम का मूल्य

 शून्य रुप में पड़ी थी मिट्टी

सबकी ठोकरें खाती थी

मन मसोस कर रहती थी

बिना लक्ष्य के जीती थी.

एक कुम्हार ने आकर श्रम से 

मिट्टी को खोदा और गूंथा धा

फिर चाक पर खूब घुमाकर

आगों के अंदर झोंका था.

तपकर जलकर उस मिट्टी ने

अनेक रुपों में आकार लिया 

मटका बनकर प्यास बुझाई

गमलों में स्वप्न साकार किया.

श्रम का मूल्य सदा मिलता है

तन का भी होता उपयोग

बेशक कष्टों से होता सामना

लेकिन सुकर्म का होता योग.

बदल स्वयं को सद्कर्म करे जो

वो सर्व हितकारी बन जाता है

अपराधी दुष्कर्मी अधर्मी 

विध्वंस कारी बनकर जीता हैं.

भारती दास ✍️

9 comments:

  1. वाह! सुंदर प्रेरणा देते शब्द !

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    1. धन्यवाद अनीता जी

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    2. This comment has been removed by the author.

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  2. वाह!!!
    बहुत ही सुंदर संदेशप्रद रचना।
    श्रम का महत्व!

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    1. धन्यवाद सुधा जी

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  3. बहुत सुंदर रचना,प्रेरणादायी,

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    1. धन्यवाद मधुलिका जी

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  4. सत्कर्म के लिए प्रेरित करती सुंदर रचना।

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    1. धन्यवाद जिज्ञासा जी

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