हे योगी तेरी किन भावों को मानूँ
हर रूपों में तुम ही समाये,
उन रूपों को पहचानूँ
हे योगी .....
लघुता-जड़ता पशुता-हन्ता
सब कर्मों के तुम ही नियंता
उन अपराधों को जानूँ
हे योगी .....
तुम से प्रेरित नील गगन है
जिसमें उड़ता विहग सा मन है
उन परवाजों को जानूँ
हे योगी ......
दुर्गम पथ पर चलना सिखाते
मुश्किल पल में लड़ना सिखाते
उन सदभावों को जानूँ
हे योगी .....
भारती दास ✍️
सुंदर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteसुन्दर
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-11-22} को "कोई अब न रहे उदास"(चर्चा अंक-4618) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
धन्यवाद कामिनी जी
Deleteबहुत ही सुन्दर रचना आदरणीया
ReplyDeleteधन्यवाद अभिलाषा जी
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