जिन गलियों में बचपन बीता
जिन शैशव की याद ने लूटा
उसी बालपन के आंगन में
हर्षित हो कर घूम आये हैं.
स्मृति में हर क्षण मुखरित है
दहलीज़ों दीवारों पर अंकित है
स्नेह डोर से बंधे थे सारे
पुलकित होकर झूम आये हैं.
नहीं थी चिंता फिकर नहीं था
भाई बहन संग मोद प्रखर था
सुरभित संध्या के आंचल में
पुष्प तरू को चूम आये हैं.
न जाने कब हो फिर आना
इक दूजे से मिलना जुलना
रहे सर्वथा उन्नत जन्मभूमि
जहां स्वप्न हम बुन आये हैं.
भारती दास ✍️
वाह! बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteबेहतरीन।
ReplyDeleteधन्यवाद सर
ReplyDeleteवाह!मनकी पुलक मुखरित हो शब्दों में ढल गई।
ReplyDeleteसुंदर।
धन्यवाद कुसुम जी
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteबचपन जीवित हो गया
धन्यवाद सर
Deleteबहुत ख़ूबसूरत...ख़ासतौर पर आख़िरी की पंक्तियाँ....
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteवाह । आ चलो लौट चलें बचपन के आंगन में ।
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति ।
धन्यवाद जिज्ञासा जी
Deleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
Deleteहो कोई किमत लौट चलने कि अदा कर जाऊं
ReplyDeleteरश्कि जवानी को उस नन्हें ' बचपन ' पर कुछ युं निछावर कर जाऊं।
चिंता एवं चिन्तन मुक्त बचपन ! सुन्दर ! अति सुन्दर !
धन्यवाद सर
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना,
ReplyDeleteधन्यवाद मृदुला जी
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