कहते हैं कि समुद्र मंथन से
निकला घड़ा जो भरा था विष से
शिव के कालकूट पीने पर
गिरी थी कुछ बूंदें धरती पर
जहर मिली मिट्टी को मथकर
नर नारी को बनाया ईश्वर
अपना ज्येष्ठ सुपुत्र बनाया
पुष्प के जैसा उन्हें सजाया
विश्व चमन को विकसित करने
कर्तव्य सत्कर्म समर्पित करने
उत्कृष्ट मन श्रेष्ठ भाव दिया
उपहार में उनको सद्भाव दिया
परिस्थितियां हो कितने कठिन
नहीं करते कभी मुख मलिन
पलक झपकते ढल जाते हैं
अनुरुप समय को कर लेते हैं
परंतु विष जब होता हावी
तब ईर्ष्या हो जाता प्रभावी
प्रलयकारी दृष्टि बन जाती
विनाशकारी सृष्टि कर जाती
जग क्रंदन करता ही रहता
घात-प्रतिघात चलता ही रहता
ईर्ष्या रुपी गरल समाया
मानव के मन को भरमाया.
भारती दास ✍️
वाह!बहुत सुंदर!!!
ReplyDeleteधन्यवाद सर
Deleteसही है, विष और अमृत दोनों ही हमारे भीतर हैं, हमें सजग रहकर अमृत ही लुटाना है
ReplyDeleteधन्यवाद अनीता जी
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक सृजन भारती जी ।
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
ReplyDeleteपरंतु विष जब होता हावी
ReplyDeleteतब ईर्ष्या हो जाता प्रभावी
प्रलयकारी दृष्टि बन जाती
विनाशकारी सृष्टि कर जाती..... बहुत सुंदर रचना।
धन्यवाद सर
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