प्रतिशोध जिसके मन भरा
उसका कहां होता भला
अवसाद में पल-पल गला
कब चैन उसको है मिला.
भीष्म जिनके शौर्य की
गाथा सुनाती है मही
अर्जुन की ख्याति क्षेत्र की
गुंजित पताका भी ढही.
रक्त से धोयी गयी थी
द्रोपदी के केश को
भेंट रण की चढ गये थे
बैर ईर्ष्या द्वेष वो.
ना जोश था ना हर्ष था
नरमुंड का अवशेष था
उस जीत के आगोश में
इक क्षोभ केवल शेष था.
मन पर नही तन पर भी शांति
सुख की वृष्टि करती है
सौम्य स्नेह की रश्मि से
संताप मति का हरती है.
प्रभु ने दिये हैं सुख सभी
अन्न नीर धरती पर यहीं
अंत होता है नहीं कभी
लोभ लालच का कहीं.
तप त्याग ऐसी शक्ति है
जिसको सदा जग मानता
आत्मबल से जूझकर भी
जो कभी ना हारता.
स्वाभिमान से बढते चले
अभिमान ना ही दंभ हो
कर्म ही जीवन गति हो
यही ध्येय हो यही मंत्र हो.
बहुत सुन्दर और सार्थक
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteभीष्म जिनके शौर्य की
ReplyDeleteगाथा सुनाती है मही
अर्जुन की ख्याति क्षेत्र की
गुंजित पताका भी ढही.....
प्रतिशोध जैसी विषय पर बहुत ही सुंदर रचना। ।। साधुवाद व शुभकामनाएं आदरणीया।
बहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteबहुत सुंदर सार्थक सत्य दर्शाता सृजन।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद कुसुम जी
ReplyDeleteबहुत बहुत सराहनीय सुन्दर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद सर
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