Friday, 17 April 2020

शाम धरा की विकल बहुत है

शाम धरा की विकल बहुत है
नेत्र युगल क्यों सजल बहुत है....
दिवस का सूनापन अकुलाता
भाव अनेकों मन घबराता
स्वजन मिलन के नियम बहुत है
शाम धरा की विकल बहुत है....
क्षुब्ध है अवनी मूक गगन है
आर्त करुण करता बचपन है
संकल्प ये संयम कठिन बहुत है
शाम धरा की विकल बहुत है....
शाप है किसका दोष किसी का
झेल रहा जन त्रस्त दुखी सा
घाव दंश की जलन बहुत है
शाम धरा की विकल बहुत है....
मजदूरों को इस अवसर पर
भूख मिटाये बनकर ईश्वर
रीत धर्म की सरल बहुत है
शाम धरा की विकल बहुत है....
इक दूजे से दूर रहे सब
क्लेश का कंटक मुक्त करे अब
आश सफल हो पहल बहुत है
शाम धरा की विकल बहुत है....
भारती दास ✍️





10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 18 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद यशोदा जी

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  2. बहुत अच्छी सामयिक प्रस्तुति
    कठिन घड़ी कुछ न कुछ अच्छी सीख देगी

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    1. धन्यवाद कविता जी

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  3. सुन्दर और सामयिक प्रस्तुति

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  4. बहुत अच्छी रचना।

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