Wednesday, 30 May 2018

वक्त से ही उत्थान-पतन है


आवेग पवन का सह नहीं पाया
गिरा तरु से एक हरी छाया
नींद से बोझिल थकी सी आँखें
बदहवास-सी उखड़ी सांसें
तारों भरी थी काली रात
दुबक के पड़ गयी वो चुपचाप
नहीं था अब वो चैन का बिस्तर
नहीं था कोई प्यारा सहचर
टहनी पर वो टिक नहीं पाई
दुनिया से कुछ कह नहीं पाई
बेरंग रात-दिन गुजर गया
हुई हताश रूह मर गया
रिश्तों का डाल टूट गया
वो मुरझा गयी सब छूट गया
लता-पत्र की छिन गयी डाली
मिटी अनंत सुख-खुशहाली
जब टूटकर गिरती उमंगें
बिखर सी जाती स्वप्न बहुरंगे
वक्त से ही उत्सव सा मन है 
वक्त से ही उत्थान-पतन है  
दृश्य-अदृश्य रूप है चिंतन की
पादप हो या मानव-जन की.      
भारती दास ✍️ 

No comments:

Post a Comment