कांपती हड्डियाँ ठिठुरते
गात
है निर्दय सी ये पूस की रात
....
घुटनों में शीश झुका बैठे
है
कातर स्वर से पुकार उठे है
न जाने कब होगी प्रभात , है
निर्दय ....
लाचार बहुत मजबूर ये जान
संघर्ष में जीते हैं इन्सान
कुदरत देती है कठोर सी घात
, है निर्दय ....
बर्फ सी बहती ठंढी बयार
आग की लपटें है अंगीकार
निष्प्रभ लोचन बंधे है हाथ
, है निर्दय ....
सभ्यता के इस दंगल में
अंतर करना है मुश्किल में
होकर मौन जीते चुपचाप , है
निर्दय ....
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