Sunday, 14 August 2016

नमामि भूमि वत्सले



आजादी के शुभ-दिवस पर
केसरिया रंगों में सजकर
वादे के गुच्छों को सजाकर
मर मिटने की कसमें खाकर
हर्षित होते अतिथि विशेष
कहते कुछ दयनीय परिवेश
दर्शाते मनोभाव का चित्रण
दशा-दिशा का ये परिवर्तन
अवर्ण-सवर्ण का भेद बताते
कुछ टुकड़े धर्मों का करते
कुछ विकास पर प्रश्न उठाते
कुछ भविष्य का चिन्तन करते
नौकरी शिक्षा सब में आरक्षण
जाति-विषमता घृणा-शोषण
क़तार में खड़े होते किशोर
सुनते भाषण भाव-विभोर   
निर्दोष-निर्बोध रहते बिखरते
विपदाओं के जाल में फंसते
प्रतिभायें कही भी जीती
कूड़े के ढेरों पर सोती
आज भी सख्त है गांव की पीड़ा
कठिन बड़ी है पीड़ित परंपरा
कष्ट यातना कब तक सहेगी
कब तक उन वादों में जियेगी
पर्वत के दुर्गम शिखरों पर
गुनाह का कृत्य चलता है निरंतर
अपनों के ही विश्वास घातों से
दिल टूट चूका है आघातों से  
आतुर होकर देखती है राह
मातृभूमि की व्याकुल निगाह
विकल हुई थी भूमि बड़ी
मगर संभल कर उठ पड़ी
सब कपूत नहीं है मिले
कुछ सपूत भी है भले
जो सदा हरपल कहे
नमामि  भूमि वत्सले
कर न तू शिकवे गिले
तू सदा फूले-फले
तेरे क़दमों के तले
उत्सर्ग जान कर चले.     

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