जेठ की तपती दोपहर
सूनी गलियां बेजान शहर
पदचाप सुनाई नहीं देते
द्वार घरों के बंद होते
भूले-भटके ही पथिक होते
कलरव-विहीन विहग होते
रवि अनल बन तपा रहा है
कोमल बदन को जला रहा है
उष्ण पवन झुलसा रहा है
स्वेदकणों से भीगा रहा है
पादप विटप कुम्हला रही है
व्याकुलता सी छा रही है
पशुयें भी जान गवां रहे
राग-रुदन की सुना रहे
सुखी धरती चटक रही
बूंद-बूंद को तरस रही
किसान है इतने निराश
उजड़ती गृहस्थी टूटती आश
मरते मवेशी जलती खेती
असहाय बन देखती दृष्टि
झीले नदियाँ तालाब अनेक
फिर भी जल संकट है विशेष
त्राहि-त्राहि की मची है
शोर
कब होगी बारिश घनघोर
बस मानसून जल्दी ही आये
रिम-झिम रिम-झिम जल बरसाये.
भारती दास ✍️
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