Sunday, 6 March 2016

हे भूतनाथ हे कैलाशी



रुक से गए हैं वक्त के धारे
संकट क्यों बन जाते सारे
कष्ट-पीड़ा तो संग में चलती
तकलीफें हर-पल ही बनती
विकलतायें उर में बस जाती
विफलतायें प्रारब्ध बन जाती
वेदना बन जाती है अपार
कुहासे दर्द के होते हजार
तब भी गीत तेरा ही गाती
हे प्रभु तुमसे नेह लगाती
चक्षु-नीर भी तुम्हे चढ़ाती
आश की दीप मैं सदा जलाती
हे भूतनाथ हे कैलाशी
हे दीन-दुखी के सुखराशी
तुम अगम अगोचर हो शंभो
इक बार निहारो नाथ प्रभो
बाधाओं के चक्रव्यूह को
पीड़ाओं के उस समूह को
निज दोनों हाथों को बढाकर
दुर्भाग्य हरो हे भोले कृपाकर.     
भारती दास ✍️  

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