Sunday, 5 July 2015

जाना होगा सबको उस पार



लेकर दुर्लभ मानव जीवन
आशीष प्रभु का भर अंतर्मन
मानव आता ज्योति जलाने
पथ का सारा तिमिर मिटाने
करने जीवन का उपयोग
जन कल्याण का सुखद प्रयोग
पर जाते सारे प्रण भूल
कामनाएं करते हैं कबूल
अंतहीन तृष्णायें समाता
वैभव रस में कमी ना पाता
आत्मचेतना थक सा जाता
समय सदा चलता ही जाता
बचपन जाता बुढ़ापा आता
आँख-कान की व्यर्थ सी क्षमता
हाथ-पैर की सामर्थ्य-हीनता
देख विवशता रो पड़ता है
जब जाने की घड़ी होता है
सारा सत्य जागता अंतर में
जीवन के उन शेष प्रहार में
मंजिल जिसे समझकर बैठा
उन सबसे अब नाता टूटा
श्रेष्ठहीन किये कर्म धरा पर
सीख ना पाये प्रेम की आखर
अस्त-व्यस्त जीवन अपनाकर
सद्चिन्तन धर्मों को भुलाकर
सबके बीच साथ में रहकर
आये कितने क्षण और अवसर
जो क्रंदन चल रहा निरंतर
सुन नहीं पाये अंतर के स्वर
लूटता रहा वैभव मनमाना
बना रहा हरदम अनजाना
लोभ आचरण से निकालकर
मोह का आवरण उतारकर
तोड़ दर्प का अलंकार
जाना होगा सबको उस पार.      
     

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