नीति से नीयत बनती है
नीयत से बनती नियति
चिंतन के उस मन प्रांगन में
भाव बिना नहीं होती भक्ति.
हाथ छूड़ाकर जाना पड़ता
फिर भी रहते हैं अनजान
कोई ना अपना रहा हमेशा
निष्ठुर सा है ये अभिमान.
बहुत बुराई है दुनिया में
अच्छाई भी कम नहीं
हो सघन कितना ही अँधेरा
रोशनी रूक पाती नहीं.
हर्ष-शोक-अपमान-ग्लानि
दुःख-दैन्य न जीवन का आकर्षण
बोध-चेतना दबी सी रहती
मानव की आखों में उस क्षण.
धीरे-धीरे संशय से उठ
पाने लगी अपनी पहचान
जो भी बिखरा-उजड़ा क्षण था
आज हुआ इसका हमें ज्ञान.
अब तक कहाँ छिपा था ये बल
था साहस छिपा कहाँ
असहाय सा बनकर नाहक
पीड़ा पाते रहे यहाँ.
विचर रहे थे स्वप्न नीड़ में
तम ने भी था घेरा डाला
स्नेह-गीन तारों के दीपक
व्योम-विपिन में किया
उजाला
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