जीवन के उस पतझड़
में
सपना तोड़ते पलभर
में
वही लाडला बेटा
अपना
जिसके लिये देखा
था सपना
दिन और रात किये
थे एक
इच्छा पूरी किये
थे प्रत्येक
ऊँगली पकड़कर जिसे
चलाया
कब जागा किस समय
सुलाया
आखों से ये क्षण
गुजरता
मन पीड़ा से थक सा
जाता
फ़ैल रहा है ये
विकृत विचार
बच्चे करते अभद्र
व्यवहार
खो गयी मानव की
सोच
सेवा-श्रद्धा और
स्वबोध
माता पिता होते
थे शान
उनसे होती थी
पहचान
आज उपेक्षित कहीं
खड़े हैं
रोग पीड़ा से
ग्रसित पड़े हैं
भारभूत समझ कर
उनको
तिरस्कार करते
हैं जिसको
वही पग-पग पर बने
सहारे
गर्व से झूम उठते
थे बेचारे
वृद्ध अवस्था
अभिशाप नहीं है
फिर क्यों शाप सा
आज हुआ है
सुपुत्र वही जो फर्ज निभाए
माता-पिता को सम्मान
दे पाये.
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