Saturday, 1 February 2014

ऋतू बसंत

 
आया बसंत लाया समस्त
उर में अनंत सपने जीवंत
है दिग- दिगंत पुष्पित सुगंध
स्पर्श वंत  मद मस्त  गंध
गुन-गुनकी स्वर गुंजित भ्रमर
मादक नजर कुसुमित अधर
कोयल की कूक मीठी सी हूक
देती बदन में पी की फूंक
उलझे नयन महके चमन
पुलके प्रणय की मन हिरण
नवनीत गात कोमल ये पात
सुरभित सुभग स्नेहिल प्रगाढ़
पादप –विटप धरती भरी
वातावरण प्रफुलित पड़ी
आमों में मंजरी की लड़ी
चहुँ ओर दर्शित शुभ घड़ी
उज्जवल वसन शोभित बदन
हिमकुंद पद्दम विराजती
वन्दित युगल पंकज चरण
वर – दण्ड वीणा धारती
स्मित अधर मदिरा नजर
प्रगटी है भू पर भारती
जनजन भवन गाते मुदितमन
शारदे की आरती
दुर्बल अहं छोड़े ये मन
रखें सदा ही मन प्रसन्न
ये युग बसंत है श्रेष्ठवंत
है यही मंत्र हो पथ-प्रशस्त .

No comments:

Post a Comment