एक पिता से खुदा खफा थे
बचपन में उनके पिता नहीं थे
चाचा के संग बचपन बीता
दसवीं तक ही उनको सींचा
भविष्य था उनका अंधकार
थे बहुत वे समझदार
शिक्षण करते खुद भी पढ़ते
शिरोधार्य हर कष्ट वो करते
मेंहनत उनकी थी फलदायी
स्नातक की डिग्री पायी
शिक्षक बनकर थे तैयार
चरित्र था उनका इमानदार
खुद उनके बच्चे थे चार
रखते थे सुन्दर विचार
सब बच्चों को वही पढ़ाते
उन सबसे आशा भी रखते
जिस बेटे से सर था ऊँचा
उसी ने की थी पूरी इच्छा
श्रेष्ठ विद्यालय में हुआ चयन
पिता के भर आये
नयन
छात्रवृति भी मिलने लगी
पढाई उसकी चलने लगी
अपनी गति से समय चला
अधिकारी बन वो निकला
शादी हुई परिवार बना
अपने परिजन को भूल चला
बस उसको है एक ही सपना
धन-जुगार हो केवल अपना
पिता बेचारा दीन-हीन
हो गया सर्वश्व विहीन
रोम –रोम में जिसे बसाया
आज उसीने किया पराया
भूल गया पिता का प्यार
वो समस्त जीवन व्यवहार
पिता का वो रातों का जगना
स्नेह से उनका माथा चूमना
पिता को सम्मान है प्यारा
दर्द छिपा लेते हैं सारा
लेकिन अन्दर में उनका मन
राह देखता हर-पल क्षण-क्षण
एक ही घर की कथा नहीं है
हर पिता की व्यथा यही है
क्यों खुदगर्ज हो जाते बच्चे
जीते जी तो
मौत ही देते
पिता ने खुद को लिया संभाल
बेशक वो रहते खुशहाल
एक मंत्र जो शक्ति देता
उनके कष्टों को हर लेता
“जाही विधि राखे राम
ताहि विधि रहिये”.
भारती दास ✍️
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