नित्य कुपथ बनता दुर्जन का
क्यों शिव तुममें शक्ति नहीं है?
उम्मीदें सब टूट रही है
क्या नारी की मुक्ति यही है ?
असुर निरंतर कुचल रहे हैं
शील संयम के तारों को
दुःखद अंत करता जीवन का
सुनता नहीं चीत्कारों को।
स्वजन परिजन चीखते रहते
क्रंदन करता मां-बाप का मन
निडर दरिंदा घूमता रहता
पिशाच बनकर रात और दिन।
प्राण से प्यारी सुकुमारी को
कैसे बचायें महाकाल बता
रौद्र रूप फिर अपनाओ तुम
मिटा दो दैत्यों की क्षमता।
हे नीलकंठ अंबर से उतरो
अब आश तुम्हीं से है जग की
निष्ठुर बलि जो सुता चढ़ी है
न्याय मिले है दुआ सबकी।
भारती दास ✍️
Good one
ReplyDeleteVinay kumar