मेले जैसा ही है संसार
जहां साधनों का लगा भंडार
विषय भोग से सजा बाजार
लगे भागदौड़ में लोग हजार.
परम पिता से बिछड़ रहे हैं
लोभ मोह से संवर रहे हैं
शील संयम के बिखर रहे हैं
क्रोध की ज्वाला प्रखर रहे हैं.
प्राण की बाती बुझ रहे हैं
सत्य की ज्योति जूझ रहे हैं
उत्कर्ष हर्ष की डूब रहे हैं
संतप्त प्रचंड भी खूब रहे है.
रात की कालिमा जा रही है
प्रात की लालिमा छा रही है
मौन मुकुल खिल जाने को है
वधू वसुधा सुख पाने को है.
भारती दास ✍️
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ReplyDeleteदोस्त, ये कविता पढ़कर सच में लगा जैसे किसी मेले का पूरा दृश्य आंखों के सामने घूम गया। हर तरफ शोर, भागदौड़, लालच और क्रोध की आग दिखी, लेकिन साथ ही उम्मीद की एक नई सुबह भी झलकती है। मैंने भी यही नोटिस किया कि इंसान अक्सर मोह और भोग में उलझकर अपने असली मकसद से दूर हो जाता है।
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