एक विशाल पेड़ था हरा भरा
था छाया में जिसके ऊंट खड़ा
पथिक बैठते छांव में थककर
खग कुल गीत गाते थे सुखकर
तभी प्रलय बन आया तूफान
गिर पड़ा वृक्ष नीचे धड़ाम
नीड़ से बिखरे अंडे बच्चे
मर गये ऊंट भी हट्ठे कट्ठे
भूखे सियार ने देखा भोजन
हुआं हुआं कर हुआ प्रसन्न
अपने भाग्य को खूब सराहा
ईश्वर के प्रति प्रेम निबाहा
एक मेंढक भी कहीं से निकला
सियार का मन तो बल्लियों उछला
सोचा पहले मेढक को खाऊं
फिर सारा भोजन कर जाऊं
पर कूद गया मेढक जल्दी में
सियार समाया दलदल मिट्टी में
कुछ ही पल में सब घटित हुआ
विधि की लीला विदित हुआ
सियार ने जो भी था पाया
अधिक लोभ में सभी गंवाया
लालच के चक्कर में पड़कर
पछताते हैं लोग भी अक्सर.
भारती दास ✍️
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलरविवार (16-10-22} को "नभ है मेघाछन्न" (चर्चा अंक-4583) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
------------
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत धन्यवाद कामिनी जी
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
Deleteबहुत बहुत धन्यवाद सर
ReplyDeleteजीवन को परिभाषित करती सुंदर सराहनीय रचना ।
ReplyDeleteधन्यवाद जिज्ञासा जी
ReplyDeleteइसलिए ही तो कहा जाता है कि लालच बूरी बला है। सुंदर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteधन्यवाद ज्योति जी
Deleteबहुत मार्मिक और सार्थक शब्द चित्र प्रिय भारती जी।किसी की विपदा और भयावह असहायता की स्थिति में उसका फायदा उठाने की कोशिश करने वालों को कुदरत अपने हिसाब से दंडित करती है।उसकी लाठी बेआवाज़ हुआ करती है।अच्छा लिखा है आपने 🙏
ReplyDeleteधन्यवाद रेणु जी
ReplyDeleteसत्य संदेश।
ReplyDeleteधन्यवाद अमृता जी
ReplyDelete