Sunday, 19 August 2018

जग को छोड़ चले अटल

जग को छोड़ चले अटल
मन सबका करके विकल
उर का स्पंदन टूट गया
बंधन सारे छूट गया.
शोकाकुल है देश का घर-घर
रो उठा धरती और अंबर
वे थे ओजस्वी कवि प्रखर
जननायक वक्ता मुखर.
था पौरुष उनमें ओतप्रोत
बहता हृदय से नेह का स्त्रोत
तपस्वी सा सुन्दर व्यवहार
व्यक्तित्व था उनका सरल उदार.
सुनहली रातों की छाया
अंधकार की घन सी माया
मर्म वेदना जो था समाया
थककर सोया शिथिल सी काया.
नहीं हुआ कभी काल किसी का
पर कांपा होगा कर भी उसका
देश का कर्ज चुका गये
वो भारत पुत्र रूला गये.
जो रहे सदा ही सत्य चिरन्तन
नहीं किये कभी निर्मम क्रंदन
लडे़ अकेले जीवन का रण
नमन उन्हें  करता जड़ चेतन.
भारती दास

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