अमावसी गगन में जैसे
अंजन सा दिखता अंधकार
दिशा का ज्ञान कराती वैसे
तारों का स्नेहिल उपकार.
एक मात्र आशायें भरकर
नेत्र देखता है संसार
धरा घूमती रहती हरपल
लेकर ढेरों भाव उदार.
मूंदें पलकें उर में झांकें
छिपा ह्रदय में अतिशय प्यार
कनक प्रभात से झरते जैसे
दिग-दिगंत का शुभ्र श्रृंगार.
दुर्बल धारणा चेतनता की
मन को उलझता हर बार
क्या है सुख ये कौन कहे
मूक संताप का बढ़ता भार.
मानव-दानव बनकर बैठा
प्राणों का करता व्यापार
मित्र-बंधु सब भूल गये हैं
शत्रुपूर्ण करता व्यवहार.
महामुनि का श्रेष्ठ वचन है
हे मानव, मानवता को जोड़ो
अजेय है बल-शक्ति तुम्हारी
क्रोध -विध्वंस द्रोह को छोडो.
गिरा कहाँ ये समझ न आया
दया-धर्म मानव-संस्कार
व्यर्थ अभिमान में जीते लोग
छोड़ जाते सुख मोह के द्वार.
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