ओ बसंती उन्मत पवन
महसूस कर दर्दे चमन
निहार जरा कातर नयन
फिर बढ़ाना तुम कदम
तू निडर मगरूर है
मद में ही अपने चूर है
तू लाचार ना मजबूर है
फिर क्यों जमीं से दूर है
अब छोड़ दे आवारापन
ये उन्मादी अक्खड़पन
बांध ले चंचल सा मन
समझेगा तू कब अवकुंठन
कांप उठा है पेड़ बबूल
बिखरा है पथ ढेरों शूल
जीवन लघु है मत ये भूल
युग साधना तू कर कबूल.
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