Sunday, 4 December 2016

विश्व मंच पर उदित हुए



अनुभूतियों का कोमल प्रभात
संदेशा देती है विहान का
कोलाहल में थकी दोपहर
द्योतक है दिवस् के अवसान का.
संवेदना कभी नहीं मरती
अत्याचारी उन्हें दबाते हैं
दुर्भावों के कांटे बो कर
पल-पल उसे चुभाते  हैं.
समय-समय पर करवट लेता
परिवर्तन का प्रचंड प्रवाह
द्रोह से जब निराशा होती
चाहता मन अनुराग की राह.
साँझ-उषा जैसा ये जीवन
पीड़ित थकित मन होता
कर्महीन बन खोजता फिरता
जीवन में बस प्रभुता.
नियम वहीँ पर बनते हैं
जहाँ सभ्यता जीते हैं
उसे विकास की दशा मानकर
जन सब शीश झुकाते हैं.
विश्व-मंच पर उदित हुये
नव जीवन के सूत्रधार
अपवाद बने वो मानवता के
ज्ञान-धर्म-कर्म के आधार.    
       

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