Thursday, 5 November 2015

सहसा वो विलीन हो जाते



दिन ढलने को हो आया था
घर अपने सब लौट आया था
थी गोधूली की अद्भुत वेला
हुआ प्रकाश का मंद उजाला
थे बरगद के पुराने-झाड़
पशु-पक्षी बैठे थे अपार
बोली मैना आनंदित होकर
आज बड़े प्यारे थे दिनकर
सूर्योदय था कितना मनोरम
जैसे दूर हुए थे सब गम
विस्मित हो बोला चमगादड़
कौन से सूर्य कैसे हैं दिनकर
उसे प्रकाश का भान नहीं था
दिन और रात का ज्ञान नहीं था
मैना बड़ी हैरान हुई
उसकी बुद्धि से परेशान हुई
विधि ने दिन और रात बनाई
उसे प्रकृति की बात बताई
दिन में हम करते हैं काम
रातों को करते हैं विश्राम  
चमगादड़ कुछ समझ न पाया
खुद को वो उलझन में पाया
साधू एक बैठे थे मौन
सुनकर उनका दृष्टिकोण
मैना को समाझाकर बोले
चमगादड़ ना देखे उजाले  
वो सदा अंधकार में जीता
प्रकाश से उसको रहा न नाता
उसने बस रातों को देखा
दिन क्या है कभी न समझा
वो नहीं जानता क्या है सृष्टि
जीवन की कैसी हो दृष्टि
कुछ मनुष्य ऐसे ही होते
संकुचित होकर जीवन जीते
ज्ञानप्रकाश से वंचित होते
बातों से आहत कर देते
पंथहीन राहों को चुनते
फिर सहसा विलीन हो जाते.      
         

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