Saturday, 10 January 2015

दिल्ली तो बस दर्द ही देती




वो कोहरे का सघन अँधेरा
थर-थर कांपती तन मन सारा
ट्रैफिक का भी नियम नहीं है
लोगों को संयम नहीं है  
दुर्घटना कैसे घट जाती
किस तरह से मौतें होती
पैदल हो या हो गाड़ी पर
जानें जाती रहती अक्सर
विधि की खुद नीयत होती है
वो सदा ही बाध्य होती है
नियति के द्वारा ही बनती है
जो घटना हमपे घटती है
वर्ष तेरह ने पिता को छीना
विषम वेदना से पड़ा था जीना
चौदह में भाई मुख मोड़ा
अंतहीन दुःख में ला छोड़ा
वो माँ जो बैठी है अबतक
वापस आएगा बेटा कबतक
कष्टों में ही जीवन जीकर
उन्हें पढाया सबसे बेहतर

माता-पिता का सपना लेकर
चलते चले वो आगे बढ़कर
सबसे ऊँची पद को पाकर
झूम उठे थे ख़ुशी से भरकर
जो माँगा था सबकुछ पाया
हँसी-खुशी से घर को सजाया
किसे पता था काल की रचना
एक ही क्षण में जीवन छीना
दिल्ली की ट्रैफिक ने ले ली प्राण
मेरे भाई की अनमोल सी जान
अश्रुओं के संग में  मिलकर
बच्चों के अरमान भी बहकर
धरती में समां गए
बचपन अनाथ हो गए
पत्नी दुःख सहती रहेगी
उम्र भर रोती  रहेगी
               कार्य अधूरे छोड़कर              
बंधन सारे तोड़कर
भाई मेरे चले गए
यादों में वो बस गए  
तन अनल में जल गए
अनिल बनकर उड़ गए
पंचतत्व में मिल गए  
सोचती हूँ मै जब भी पलभर
क्यों हुआ विपरीत ये अवसर
अस्तित्व हमारे बिखर गए
सपने सारे चूर हुए
यही प्रार्थना यही है विनती
उनकी आत्मा को मिले शांति
व्यथा भरी है मेरी पंक्ति
दिल्ली तो बस दर्द ही देती .
  

                

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