Friday, 3 October 2014

निर्बल के बल राम



 एक टिटहरी जूझ रही थी
चोंच में रेत को भर रही थी
सुबह से आखिर शाम हुई थी
संकल्प में ना कमी हुई थी
समुद्र ने तो चुटकी ली
क्यों प्राण गंवाने पर हो तुली
तुम मुझे क्या भर पाओगी
विशाल जल सूखा पाओगी
नादान दुर्बल थी टिटहरी
अधिकार पाने पर थी अड़ी
करती रही अनुनय विनय
हे समुद्र देव हैं आप सदय
ये अंडे है मेरे धरोहर
मेरे जीवन-मूल्य से बढ़कर
मेरा सुन्दर होगा परिवार
बच्चों से सजेगा घर-संसार
इसके बिना ना जी पाऊँगी
जीते जी मैं मर जाऊँगी
रो-रो करती रही गुहार
फिर भी समुद्र न सुनी पुकार
जो दुर्बल है जो निर्बल है
उसके साथ भगवान का बल है
महर्षि अगस्त आ गए वहां
न जाने वे थे कहाँ
उन्होंने वो सबकुछ देखा था  
समुद्र ने जो कहा सुना था  
करुणा से भर उठे मुनि
दया द्रवित हो उठे मुनि
समुद्र के दिल को झकझोरा
हर पहलू को मन से जोड़ा
फिर भी समुद्र ने किया इनकार
अहंकार में डूबा बेकार
मुनि अगस्त ने इक पल सोचा
अंजुरी में वारिधि को समेटा
बोले तुम हो महा-विशाल
तो मेरे तप भी है विकराल
मेरे लिए तुम हो चुल्लू-भर
पर करता रहा मैं सेवा निरंतर
दुर्बलों को दिया सहारा
मुश्किलों से सदा उबारा
समुद्र ने अस्तित्व गंवाया
जन कल्याण की कसमें खाया
टिटहरी ने अंडे को पाया
मुनि चरणों में शीश नवाया
मिली प्रसन्नता ख़ुशी तमाम
               गाती रही निर्बल के राम .             

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