आर्य-श्रेष्ठ द्रोणाचार्य
थे
शस्त्र-विद्या के
आचार्य थे
शास्त्र में भी
निपुण बड़े
लेते थे निर्णय
खड़े-खड़े
धर्म में आस्था
रखनेवाले
व्यूह की रचना
करनेवाले
उर के व्यथा छुपा
नहीं पाये
दुविधा में ही
रात बिताये
अरे ये क्या
मुझको हो रहा
बलहीन शिथिल
क्यों हो रहा
स्वेद कण क्यों
निकल रहा
दुर्बलता प्रतीत
क्यों हो रहा
अर्जुन को मैंने
शिक्षित किया
उस बालक को
दण्डित किया
गुरु शिष्य की
स्नेह डोर में
कर्तव्य पथ की
बागडोर में
मैंने किया अनर्थ
का काम
एक शिष्य को देकर
नाम
सर्व श्रेष्ठ
कहलाये अर्जुन
जग विख्यात हो
जाये अर्जुन
युद्ध विद्या में
था विख्यात
तीनों लोकों में
प्रख्यात
धर्म युध्द के
जानकर हम
अधर्म का करते
वहिष्कार हम
एकलव्य को
दुत्कार दिया
मैंने उससे
दुर्व्यवहार किया
जाति वंश का भेद
बताया
नीच कुल का विभेद
कराया
कायर निकला मैं
कमजोर
उस बालक से लगाया
होड़
साहस कर करता
स्वीकार
कर लेता उसको
अंगीकार
वो था निर्मल
मासूम बड़ा
नहीं बन सकता
चुनौती भरा
निर्जीव मूरत को
देकर प्राण
उसने किया मेरा
सम्मान
समस्त भावना
श्रद्धा सींचा
पारंगत बन विद्या सीखा
जाति-धर्म से ऊपर
उठकर
शिष्य बनाता उसको
बेहतर
गुरु दक्षिणा में
ली परीक्षा
झट पूरी की मेरी
इच्छा
रक्तसनित अंगुष्ठ
गिरा
नयनों में था
अश्क भरा
उसका सपना हो गया
चूर
मैंने किया उसको
मजबूर
हुआ गुरु से
शिष्य महान
जिसने किया
सर्वश्व ही दान
अपराध बोध से मैं
पीड़ित हूँ
आत्म दंश से मैं
विचलित हूँ
इतिहास गुरु बेशक
कहेगा
लेकिन मुझे ना श्रेष्ठ
कहेगा .
No comments:
Post a Comment