Wednesday, 30 May 2018

वक्त से ही उत्थान-पतन है


आवेग पवन का सह नहीं पाया
गिरा तरु से एक हरी छाया
नींद से बोझिल थकी सी आँखें
बदहवास-सी उखड़ी सांसें
तारों भरी थी काली रात
दुबक के पड़ गयी वो चुपचाप
नहीं था अब वो चैन का बिस्तर
नहीं था कोई प्यारा सहचर
टहनी पर वो टिक नहीं पाई
दुनिया से कुछ कह नहीं पाई
बेरंग रात-दिन गुजर गया
हुई हताश रूह मर गया
रिश्तों का डाल टूट गया
वो मुरझा गयी सब छूट गया
लता-पत्र की छिन गयी डाली
मिटी अनंत सुख-खुशहाली
जब टूटकर गिरती उमंगें
बिखर सी जाती स्वप्न बहुरंगे
वक्त से ही उत्सव सा मन है 
वक्त से ही उत्थान-पतन है  
दृश्य-अदृश्य रूप है चिंतन की
पादप हो या मानव-जन की.      
भारती दास ✍️ 

Sunday, 29 April 2018

विषैले बेल की तरह


विषैले बेल की तरह 
फैलता ही जा रहा है  
निर्दोष-नौजवानों का
रक्त पीता जा रहा है.
अन्याय का अपकर्ष का
विद्रोह का विध्वंस का
प्रतिशोध से अनगिनत ही
दंश देता जा रहा है.
ईर्ष्या-द्वेष हाहाकार है
विवश-विकल चीत्कार है
प्रतिभावान छात्र तो
व्यंग्य बनता जा रहा है.
पुण्य या दुष्पाप है
संघर्ष या अभिशाप है
आरक्षण की मार से
निष्पंद-स्वप्न हो रहा है.
मार-काट-क्रूरता
अनय की कठोरता      
क्रोध बन फूटता
कलह-बैर-दुष्टता
जातिगत-जड़ता
कलंक बनता जा रहा है.
भारती दास ✍️ 
    

Saturday, 24 March 2018

श्री राम वन्दनम्


दशरथ-तनय सीता-प्रणय
मद-मोह भव-भय नाशनम्
हे पद्म-नेत्रम्  मेघ वर्णम्
रोग-शोक विनाशनम्.
अमोघ कर धनु-सायकम्
तन पीत-वस्त्र सुशोभितम्
पुरुषोत्तमम् - सुलोचनम्
सद-आचरण दे मोक्ष मम्.
शांति-प्रिय करुणा-हिय धन्य
पुण्य सत्य विभावनम्
अच्युत-प्राण वैकुण्ठ-धाम
जय ज्ञान-वान पुरातनम्.
हे जनार्दन धरणी-धरण्
नारायणम् जय चराचरम्
ओज-तेज प्रकाश-वेग
जय वेद-विज्ञ सनातनम् .
दीन-बंधु दयालु-सिन्धु
जय सर्व-लोक परायनम्
नीरज-नयन शशि-सम बदन
इंदिरा-पति दे शुभ वरम्.
हे सर्व-दर्शी धर्म-अर्थी
श्रीनिधि कर मंगलम्
जय अनूप-रूप दुर्लभ-स्वरुप
वन्दे युगल-पद पंकजम्.
भारती दास ✍️

Wednesday, 7 March 2018

वार्षिक उत्सव आज मनाया



महीने भर का था परिश्रम
परिवेश सुखद बन आया
हर्ष-उल्लास-उमंग से भरकर
वार्षिक उत्सव आज मनाया.
न्योछावर था कण-कण में आशा
था अर्पण हिय की अभिलाषा
प्रति-पल प्रेम ह्रदय का छलका
नाच रही थी लहर-लहर में
इक आनंद की माया,
वार्षिक उत्सव आज मनाया.
अहंकार निज तज बैठे थे
स्नेह-मिलन में रंग बैठे थे
अभिनव पुलकित भाव उठे थे
इन बचपन के मृदु-गुंजन से
सीख अनूठी पाया,
वार्षिक उत्सव आज मनाया.
उन्मुक्त हँसी शोभित अधर
चंचल-कोमल रूप प्रखर
मीठे-मीठे मोहक सा स्वर
ख़ुशी में डूबा था ये अवसर
उर में अनुराग समाया,
वार्षिक उत्सव आज मनाया.  
भारती दास ✍️